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शबे क़द्र : अहमियत, फ़ज़ीलत,एवं फ़लसफ़ा:वसी मियां ख़ान

लयलतुल क़द्र,जिसको उर्दू में “शबे क़द्र” कहा जाता है,ये एक मुबारक, बरकत वाली रात है,जिसके बारे कोई तय तरीके पर नहीं बता सकता कि ये ख़ास कौन सी तारीख़ की रात है,इसके बारे में जो मालूमात,फ़ज़ीलत,अहमियत और करने के काम हैं वो नीचे लिखे जाते हैं।

दो दुनियाएं :

सबसे पहले एक मोटा सा उसूल जानने की ज़रूरत है कि अल्लाह तआला ने दो दुनियाएं या दो जहांन (दो आयाम या दो डायमेंशन भी कह सकते हैं) बनाये हैं,और उनमे से हर एक के उसूल,कायदे बिल्कुल अलग अलग है,लेकिन बहुत सी चीजें दोनों पर लागू होती हैं।

एक दुनिया तो जिस्मानी,माद्दी भौतिक एवं ज़ाहिर है,दूसरी दुनिया रुहानी,कौनी, ग़ैबी, परालौकिक एवं बातिन है।

जिस्मानी व ज़ाहिरी दुनिया को हम अपनी आंखों से देखते हैं,यहां की परेशानियों,दिक़्कतों का इलाज और हल यहीं के संसाधनों,वसाईल और सामानों से होता है,यहां का इल्म,यहां के उलेमा, यहां के वैज्ञानिक, डाक्टर, इंजीनियर सब इसी दुनिया के उसूलों,फिज़िकल कानूनों के पाबंद होकर उन्हीं में मसाइल का हल तलाशते हैं।

जबकि रुहानी दुनिया के भी इसी तरह कायदे,कानून, बीमारियां,इलाज,परेशानियां और हल हैं। जहां पर सिर्फ रूहानी दुनिया की चीजें ही अप्लाई होती है,उनको दुनिया के ज़ाहिरी नजरिये से मोटा मोटा समझा तो जा सकता है लेकिन उसके बारे में कोई फैसला,कोई हल या इलाज दुनिया के तरीकों पर चलकर नहीं ढूंढा जा सकता।

इंसान दोनों जहानों में हिस्सेदार:

अब समझिये कि इंसान अल्लाह की अकेली मख़लूक़ है जो इन दोनों दुनियाओं को जोड़ती है,इनके बीच पुल का काम करती है,दोनों दुनियाओं के उसूलों,कायदों, कानूनों, परेशानियों,बीमारियो और मसाइल से इंसान ही मुतास्सिर( प्रभावित) होता है,वहीं दोनो दुनियाओं की नेमतों,खुशियों व लज़्ज़तो से भी इंसान ही फ़ायदा उठाता है। (जिन्नात  की बात हम यहां नहीं कर रहे क्योंकि उनके लिए हमसे अलग सिस्टम है, उनसे डायरेक्ट हमारा ताल्लुक भी नहीं है, वैसे ये उसूल उन पर भी लागू हो जाता है)

वजह ये है कि इंसान दो चीजों ( जिस्म और रूह)से मिलकर बना है,एक इस जिस्मानी दुनिया की है,दूसरी रूहानी ग़ैबी दुनिया से उसे मिली है।

जिस्म की विशेषता :

इंसान का जिस्म दुनिया के माद्दे,मैटिरियल से तैयार होता है,और यही की मिट्टी वो हवा में मिल जाता है,इसलिए अगर जिस्म को कोई तकलीफ़ पहुंचती है तो इसी दुनिया की चीजों वो दवाइयों से उसका इलाज हो जाता है, यहां की राहतों,लज़्ज़तो और ऐश वो आराम सब जिस्म को ही पहुंचता है।

रूह की विशेषता:

दूसरा हिस्सा इंसान में रुह का है, रूह इस दुनिया की नहीं है,ये रुहानी आलम से आयी है,इस पर वहीं के उसूल,कायदे,बीमारी,इलाज,परेशानी व हल लागू होता है।

जिस तरह जिस्म की राहत के लिए जो चीजें हैं उनसे रूह को आराम मिलना जरूरी नहीं,इसी तरह जिस्म की बीमारियो के इलाज रुह की बीमारी में काम नहीं आते। इसका इलाज दूसरी दुनिया के तरीकों से ही होता है।

अफ़सोस ये है कि हम सिर्फ जिस्म की राहत का ख्याल तो रखते हैं,और उसकी बीमारियों के लिए इलाज की कोशिश करते हैं लेकिन रूह की राहत और शिफ़ा की तरफ हममें से बहुत कम लोगों की तवज्जो होती है, हालांकि इंसान को जो चीज इंसान बनाती है वो अक़्ल के साथ उसकी रुह ही है, इंसानी रुह जानवरों से अलग होती है,इसका मक़ाम “आला इल्लिययीन” में है,बाकी जिस्मानी ज़रुरतें तो एक जानवर और इंसान की तकरीबन बराबर ही हैं।चूंकि रूह को नुक्सान पहुंचाने वाली चीजे भी ज़ाहिर ( visible) नहीं होती,इसलिए इसका इलाज भी आंखों से नज़र आता, हां रूह को महसूस ज़रुर होता है।

इंसान की पैदाइश का मकसद :

इन्सान की पैदाइश का मकसद अल्लाह तआला की इबादत करना है,जैसा कि क़ुरान की सूरत 51,आयत 56 से मालूम होता है, यही इबादत रूह की ग़िज़ा है।(किसी जाहिल ने म्यूज़िक व मौसीक़ी को रुह की ग़िज़ा कह दिया जबकि वो रूह के लिए कैंसर है) रूह को पाकीज़ा व तंदरुस्त रखने के लिए इबादत ज़रुरी है,लेकिन इंसान अपने जिस्मानी तक़ाज़ों की वजह से इस मकसद की तरफ कम ध्यान दे पाता है,और जिस्म की ही राहत के पीछे साल भर दौड़ता रहता है,इस बेरुखी,बेपरवाई,बेमुरव्वती के नतीजे में रूह बीमार होती चली जाती है,जिससे इंसान अपने असल मक़ाम वह मर्तबे से गिरने लगता है,जाहिरी तौर पर भले ही कितनी तरक्की करता रहे,लेकिन उसके अन्दर, हसद, कीना, दुश्मनी,जलन, धोखाधड़ी,ख़्यानत,फ़रेब,ज़ुल्म, सख़्त दिली के जज़्बात घर करते जाते हैं,और जिस्म की राहत व आराम के लिए वो ज़मीर की आवाज़ जो रूह के लिए एक वार्निंग के तौर पर आती है उस पर तवज्जो नहीं देता।

रूह की इस जरूरत को हर शख्स कुछ न कुछ पूरा करके अपने आपको दोबारा इंसानियत की तरफ ला सके,अपने खोये हुए वक़ार और मर्तबे को हासिल कर सके,इसके लिए कुछ खास वक्त ऐसे रखें गये है कि उनमें खास रूहानी असर होता है,उन वक़्तो मे अगर खास अमल किया जाये तो उसके बेहतर नताइज बहुत दूर और देर तक साथ रहते हैं।

मसलन रमज़ान के रोज़े,शबे क़द्र जो रमज़ान में ही उसके अन्दर इबादत,ज़िलहिज्जा के महीने में हज वगैरह।

रोज़े पूरे साल रखिये लेकिन रमज़ान के फ़र्ज़ रोज़े का बदला नहीं बन सकते।
हज के मकामात मिना,अरफ़ात,काबा, क़ुरबानी के जानवर सब पूरे साल मौजूद हैं लेकिन हज सिर्फ ज़िलहिज्जा के खास दिनो में ही कर सकते हैं।

पांच वक्त की फ़र्ज़ नमाज़ अपने वक्त में ही अदा करनी है,ज़रा भी वक्त से 2 मिनट पहले अदा कर ली तो नहीं होगी।
इसका मतलब है कि इन खास वक़्तो में ज़रूर कुछ तासीर है जो दूसरों में नहीं है।

अब जो इंसान पूरे साल अपने रूहानी मरज़ को भूलकर अपनी रुह को बीमार बनाता रहा,उसके लिए एक महीना दे दिया गया कि साल भर की रिपेयरिंग,डेंटिग पेंटिंग,और साफ़-सफ़ाई कर लें, शैतानो को क़ैद करके और तमाम मुसलमानों को एक वक्त रोज़ा रखने को कहकर एक माहौल बना दिया गया जिससे रोज़ा व तरावीह की  इबादत आसान हो जाये,फिर एक फ़र्ज़ का बदला 70 गुना,और नफ़्ल का सवाब फ़र्ज़ के बराबर करके इसकी तरफ बुलाया गया क्योंकि इंसानी फितरत है कि वो अपने फायदे के वादों,इंसेटिव और इनाम के लिए जोश खरोश से काम करता है,फिर जो इंसान रमज़ान के शुरू हिस्से में भी अपनी हालत में सुधार नहीं कर पाया, खुदा से ताल्लुक मज़बूत करने के मौकों को गंवाकर रूहानी तरक्की न कर सका तो उसके लिए आखिर में एक बम्पर
पैकेज के रूप में “शबे क़द्र” रखी गयी है,कि इसमें तो बहुत ही आसानी से वो रूहानी तरक्की की सीढ़ियों पर चढ़कर अपनी इंसानियत का सही मक़ाम हासिल कर सकता है जो सिर्फ और सिर्फ कायनात के बनाने वाले और उसको चलाने वाले व पालने वाले से ताल्लुक बनाकर ही पाया जा सकता है।

इन दिनों खास तौर पर शबे क़द्र में जिस्म के दुनियावी तक़ाज़े कमज़ोर पड़ जाते हैं,इंसान अगर रोज़े रख रहा हो,तरावीह पढ़ रहा हो तो उसे ये साफ महसूस होता है।रुह के तक़ाज़े उभरकर सामने आते हैं।
एक वजह तो मोटी सी यही है कि इसमें जो दो इबादतें यानी दिन में रोज़ा और रात को क़ुरान पढ़ना सुनना जो होता है दोनों ही रुहानी दुनिया की चीजें हैं,रोज़ा तो जैसे मैंने पहले भी बताया है कि एक तरह से अल्लाह की कापी है कि इंसान जिस्म के बुनियादी तक़ाज़ों खाना- पीने और ख़्वाहिशात को छोड़कर अल्लाह की सिफत की नक़ल करता है।
और क़ुरान खुद रूह की तरह दूसरी दुनिया की चीज है,वो अल्लाह का कलाम है,इस दुनिया का नहीं है,तो इन दोनों के असर से रूह को अपनी दुनिया की भरपूर ख़ुराक मिलती है,वो खिल उठती है,और जिस्म के ऊपर उसका कंट्रोल काफी हद तक हो जाता है।

अब रही ये बात कि इन वक़्तो में ये असर क्यूं है,किसी और वक्त में क्यूं नहीं?

इसके जवाब में यही कहा जा सकता है कि जिस तरह दुनिया के अन्दर हर फ़सल,फल,सब्ज़ी और मेवें का एक खास मौसम होता है,अगर उसी में उसका बीज डाला जाये तो फसल उगती है,फल मिलते हैं,अगर मौसम के बगैर बीज डाला जाये तो वहीं जमीन उसको उगाने से मना कर देती है।

इसी तरीके से रुहानी दुनिया में तरक्की के लिए खास खास मौसम हैं,इन मौसमों में अगर खास इबादत,अमल और भलाई का बीज डाला जाये तो वो तेज़ी से फल दाता हैं। रमज़ान में और वो भी शबे क़द्र में क़ुरान करीम का उतरना कोई इत्तेफ़ाकी हादसा या संयोग नहीं है, बल्कि रमज़ान में ही सभी आसमानी किताबें उतारी गयी हैं,क़ुरान में सूरा बक़रह सूरत 2 आयत 185 में और सूरा दुख़ान सूरत 44 आयत 3 में और फिर  पूरी सूरा क़द्र सूरा 97 को पढ़ने से पता चलता है कि क़ुरआन रमज़ान में शबे क़द्र ( लयलतुल क़द्र) में नाज़िल किया गया।

ज़ाहिर है कि इस बात को तीन जगह पर जिक्र करने से इस तरफ इशारा है कि ये वक्त अल्लाह के यहां खास मक़ाम व मर्तबा रखतें हैं,फिर शबे क़द्र की तफ्सील से और मालूमात होती है।

“शबे क़द्र” या ” लयलतुल क़द्र” ये दो लफ़्ज़ों शब और क़द्र से मिलकर बना है, शब का मतलब रात है जिसे अरबी में लयलह कहते हैं, क़द्र के दो मतलब हैं।

1) ये तक़दीर से बना है, क्योंकि इस रात में लोगों की साल भर तक़्दीरो के फैसले फरिश्तों के हवाले कर दिये जाते हैं,सूरा दुख़ान की आयत नम्बर 4 से हमें इसका पता चलता है,कौन ज़िंदा रहेगा,कौन भरेगा,कौन ख़ुशिया देखेगा,किसको ग़म उठाना है,कौन नेकी करेगा,कौन बुराई में गिरेगा। सब तय किया जाता है,इसलिए बेहतर है कि इंसान ऐसी हालत में इबादत,दुआ व नेकी में मशगूल हो, ताकि उसके हक़ में बेहतर फैसले हों। दुआ से तक़्दीर बदल जाती है,और अल्लाह हरगिज़ भी उस बन्दे को मायूस न करेगा जो इस मुबारक रात में उसके दर पर पड़ा है।

2) दूसरा मतलब क़द्र का “बलंद मर्तबा,इज़्ज़त व अज़मत” है। हमारी ज़बान में भी कहा जाता है कि फलां आदमी की बड़ी क़द्र है,इस रात की क़द्र का अंदाज़ा इससे करिये कि क़ुरान‌ ने सूरा 97 में ख़ुद इस रात को एक हज़ार महीनो से अफ़ज़ल और बेहतर बताया है, मतलब 83 साल 4 महीने की इबादत और उसमें किये गये नेक कामों से बेहतर एक रात की इबादत और अमल है।

इस रात में फरिश्तों के सरदार जिबरील अलयहिस्सलाम ज़मीन पर अल्लाह के फ़ैसलो को लेकर उतरते ही है,जो आदमी भी इबादत में मशगूल हो,तिलावत में,नमाज़ में, ज़िक्र में,तस्बीह में,या किसी भी नेक काम में उसके लिए रहमत की दुआ करते हैं,उस के लिए सलामती की दुआ करते हैं।

और ये ज़ाहिर है कि दुआ के कबूल होने में दुआ करने वाले का बड़ा रोल होता है।फ़रिश्ते मासूम है,वो गुनाह नहीं करते,बल्कि अल्लाह के हुक्म पर जूं का तूं अमल करने के सिवा वो कुछ नहीं करते,ज़मीन पर उतरकर जब वो अल्लाह ही के हुक्म से लोगों के लिए दुआएं करेंगे तो क़बूलियत में क्या शक है?

शबे कद्र के बारे में कुछ और फैक्ट्स :

1)इस रात का इल्म अल्लाह के रसूल सल्लललाहु अलयहि वसल्लम को दिया गया था, और आप अलयहिस्सलाम बताने भी वाले थे कि दो आदमियों में झगड़ा हो गया जिससे इसका इल्म उठा लिया गया,अब किसी एक रात में गारंटी से नहीं कहा जा सकता है कि यही शबे क़द्र है।

2) रसूलुल्ललाह सल्लललाहु अलयहि वसल्लम ने इसको रमज़ान के आखिर दस दिनों में तलाश करने के लिए फ़रमाया है।इसके लिए एतकाफ़ भी किया।इन दस रातों में भी ताक यानी 21-23-25-27-29 में ज़्यादा इमकान है।

3) शबे क़द्र के लिए अल्लाह के रसूल सल्लललाहु अलयहि वसल्लम ने हज़रत आयशा रज़ीअल्लाहु अन्हा को ये दुआ सिखाई : अल्लाहुम्मा इन्नका अफ़ुव्वुन तुहिब्बुल अफ़वा, फ़अफ़ु अन्नी या करीम
اللهم إنك عفو تحب العفو فاعف عني يا كريم

अनुवाद :   ऐ अल्लाह! तू माफ़ करने वाला है, माफ़ी को पसंद करता है, ऐ करम करने वाले मुझे भी माफ़ कर दे

3) हदीस में है कि शबे क़द्र से अगली सुबह सूरज की किरणों में तपिश कम होती है।

4)शबे क़द्र हज़ार महीनों से बेहतर तो है,लेकिन कितनी बेहतर है,दोगुनी,चार गुनी या दस गुनी कुछ नहीं कह सकते।

5) क़ुरान पहले पूरा का पूरा एक साथ शबे क़द्र में नाज़िल होकर लौहे महफ़ूज़ में रखा गया,फिर रसूलुल्ललाह सल्लललाहु अलयहि वसल्लम पर पहली मर्तबा सूरा अलक़ की पांच आयतें भी रमज़ान में शबे क़द्र मे ही जिब्रील अलयहिस्सलाम लेकर आये।

6) जो रात भी शबे कद्र होगी उसकी बरकतें, नूरानियत, सवाब सुबह फज्र के वक्त तक रहेगा,ऐसा नही है कि  रात के थोड़े ही हिस्से में ये ख़ास फायदे हासिल होते हों, बल्कि पूरी रात यहीं कैफियत रहती है।

7) शबे क़द्र का सवाब उसको भी मिल सकता है जो उस रात ईशा और फज्र की फ़र्ज नमाज़े जमात से पढ़ें, लेकिन इसकी पूरी बरकात के हासिल करने के लिए ज़्यादा से ज़्यादा इबादत और नेक अमल करना चाहिए।

8) शबे क़द्र में कोई खास चीज आसमान या ज़मीन पर नज़र नहीं आती, इसलिए “कुछ” देखने की कोशिश या ख्वाहिश फुजूल है।

9) तमाम ही रातों में 27 रात के अन्दर शबे कद्र होने के “चांस” ज़्यादा है, लेकिन ये सिर्फ “चांस” ही है,तय नहीं है।

10) इस रात में हर शख्स की मगफिरत की जा सकती है,लेकिन चार किस्म के लोगों की मग़फ़िरत नहीं होती जब तक कि वे पक्की तौबा न कर लें।
शराब पीने वाला
मां बाप की नाफरमानी करने वाला
रिश्तेदारों से बगैर किसी शरई वजह के ताल्लुक तोड़ने वाला
और मुसलमान से कीना रखने वाला।

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