8 वीं सदी में ख़िलाफ़त- ए- बनूं उमय्या सुपर पॉवर का दर्जा हासिल कर चुकी थी इसकी हुदुद मौजूदा बलूचिस्तान के इलाक़े मकरान तक फैली हुई थी,मकरान ही वो इलाका था जहां से सिंध की सरहद शुरू हो जाती थी।
8 वीं सदी में सिंध पर राजा दाहिर की हुक़ूमत थी।
लेकिन उमवी सल्तनत का एक गवर्नर हज्जाज बिन युसुफ़ बहुत मुहिम जूं क़िस्म का एडवेंचरस इंसान था। हज्जाज इराक़ का गवर्नर था उसके इलाकोंं की सरहदें सिंध के साथ मिलती थीं,उसे अपने दौर में एक ऐसा मौक़ा मिला जिसका उसने भरपूर फ़ायदा उठाया और किसी भी चीज़ की परवाह किये बगैर सिंध पर हमला कर दिया।
मशहूर है कि श्रीलंका के राजा ने जहाज़ों में उमवी ख़लीफ़ा के लिए तोहफ़े भेजे थें। सिंध की बंदरगाह, दीबल में रहने वाले मेद कौम के डाकूओं ने राजा दाहिर के कहने पर इनको लूट लिया था। यानी राजा दाहिर डाकुओं के साथ मिला हुआ था। जहाज में बैठी औरतों को भी डाकुओं ने क़ैद कर लिया था। इनमे कबीला बनूं उज़्र की एक औरत ने बेबसी के आलम में उमवी गवर्नर हज्जाज को पुकारते हुए कहा। ऐ हज्जाज ! मेरी मदद को पहुंच।
जब इस जहाज से बच जाने वाले कुछ लोगों की जुबानी हज्जाज को इस औरत के पुकारने का इल्म हुआ,तो उसने बेकरार होते हुए कहा मैं हाज़िर हूं।
फिर हज्जाज ने राजा दाहिर को ख़त लिख कर औरतों को रिहा करने और डाकुओं को सजा देने के लिए कहा।
जिस पर राजा दाहिर ने ख़त के जवाब में लिखा। मुसलमानों को अग़वा करने वाले समुंदरी डाकू हैं, और वे बहुत ताक़तवर हैं मेरा हुक्म नहीं मानते, लिहाज़ा मैं कुछ नहीं कर सकता।
राजा का ये इनकार हज्जाज बिन युसुफ को ग़ज़ब नाक कर गया उसने दीबल पर चढ़ाई का हुक्म दे दिया। यूं सिंध पर नए हमलों का आगाज़ शुरू हुआ।।
हज्जाज बिन युसुफ़ बज़ाते ख़ुद (स्वयं)एक ज़ालिम इंसान था इतना बेरहम था कि उसने मक्का मुकर्रमा का सात माह तक मुहासरा (घेराव)किया था, मुहासरे के दौरान मुसलसल संगबारी हुई जिससे खाना-ए-काबा की इमारत को भी नुकसान पहुंचा। उमवी सल्तनत में हजारों मुसलमान इसके हाथों मारे गए। लेकिन हज्जाज के ज़ालिम होने की वजह से इस अज़ीम मुहिम को एक ज़ालिमाना फ़ौजकशी नहीं माना जा सकता, क्योंकि हदीस में मौजूद है कि अल्लाह तआला इस दीन की मदद फ़ासिक़ और फाजिर से भी ले लेता है, और यह अल्लाह का एक गैबी इंतिज़ाम था कि इस मुहिम के लिए जिस नौजवान का इंतिखाब हुआ वो बेइंतिहा इंसाफ पसंद और खुदा से डरने वाला एक दीनदार मुत्तक़ी शख्स था। लिहाज़ा महज़ हज्जाज के ज़ालिम होने की वजह से सिंध की इस अज़ीम मुहिम को शक की निगाह से नहीं देखना चाहिए जैसा कि आज के दौर के चंद शरपसन्द, बे -दीन, अपनी तारीख से शर्माने वाले शिकस्त खुर्दा ज़हनियत के लोग दिखाने की कोशिश करते हैं।
हज्जाज बिन युसुफ़ के कहने पर उसके दो सिपहसालारों : उबेदुल्लाह बिन रहबान और बुदेल बिन तहाफा ने दीबल पर हमला कर दिया। लेकिन ये हमला पूरी तरह नाकाम रहा और हज्जाज बिन युसुफ़ ये दोनों सिपहसालार मारे गए l
हज्जाज को इनमे से बुदेल बहुत अज़ीज़ था।
कहते है कि जब हज्जाज को इसका इत्तेला (ख़बर)मिली तो उसने ख़बर सुनाने वाले को भी सजा दी। इसके बाद उसने मस्जिद के इमाम से कहा कि तुम जब भी अज़ान दो तो मुझे बूदेल का क़त्ल याद दिलाते रहना ताकि मैं इंतक़ाम ले सकूं।
हज्जाज की इसी बेचैनी को देखते हुए उसके एक कमांडर (आमिर बिन अब्दुल्लाह) ने कहा कि सिंध को फ़तह करने का मौका मुझे दे दिया जाए।हज्जाज उस कमांडर की सलाहियत( प्रतिभा) से ज़्यादा मुतास्सिर नहीं था, इसी लिए उसने इसको मना कर दिया।
और फिर सोचने लगा, सोच विचार के बाद उसके ज़हन में एक बहादुर, जोशीले और ईमान से लबरेज़ नौजवान का नाम आया, जो बहुत कम उम्र में फारस का हाकिम बन चुका था, अजमी दुनिया के हालात से वो वाकिफ था, उस बेबाक नौजवान का नाम था इमादुद्दीन मुहम्मद बिन क़ासिम।
मुहम्मद बिन क़ासिम हज्जाज बिन युसुफ़ का दामाद और चचाज़ाद भाई था, हज्जाज इस अज़ीम मुहिम की ज़िम्मेदारी अपने करीबी और भरोसेमंद शख्स को ही देना चाहता था, यह भी एक वजह थी कि सिंध को फतह करने वाली फौज की कमान मुहम्मद बिन क़ासिम को सौंपी गई।
मुहम्मद बिन क़ासिम सिंध के बॉर्डर मकरान की तरफ अपनी फ़ौज लेकर रवाना हो गये। 711 ईसवी के आस पास मुहम्मद बिन क़ासिम मकरान पहुंच गये।
हज्जाज ने एक और काम ये किया कि जंग की कमान भी पूरी तरह अपने हाथ में ले ली,और इस लिए उसने एक तेज़ रफ़्तार कासिद बहरी जहाज के ज़रिए भेजा, इस निज़ाम से हज्जाज बिन युसुफ़ तक मुहम्मद बिन क़ासिम के पैगाम पहुंचते थे और हज्जाज बिन युसुफ़ की खबरे मुहम्मद बिन क़ासिम तक जल्द से जल्द ले आता था।
डॉक्टर मुबारक अली लिखते है के मुहम्मद बिन क़ासिम की कम उम्र को देखते हुए सख़्ती से हिदायत दी थी कि वो अपने तजर्बेकार कमांडर के मशवरे बगैर कोई कदम ना उठाए।
मुहम्मद बिन क़ासिम ने दीबल जाने से पहले मौजूदा बलूचिस्तान का एक शहर पंचगौर,और साथ ही एक और शहर फ़तह कर लिया। इन दोनों शहरों की फ़तह और फौज को ताज़ा दम करने में एक साल और लग गया।
712 ईसवी में मुहम्मद बिन क़ासिम दीबल पहुंच गये। उन्होंने नमाज़ ए जुमा का ख़ुत्बा भी पढ़ा।अब मुहम्मद बिन क़ासिम दीबल पर हमले के लिए बिल्कुल तैयार थे। बस इंतजार था सिर्फ हज्जाज बिन युसुफ के हुक्म का।
हज्जाज बिन युसुफ ने दीबल के हवाले से एक ख़ास हिदायत भेजी थी। उसने कहा था कि जब तुम दीबल पहुंचो तो एक आदमी को क़ुरान ए पाक की तिलावत में लगाए रखना जब ज़रूरत पड़े तो لا حول ولا قوة का वज़ीफ़ा पढ़ते रहना और दीबल के पास अपने कैंप के इर्द गिर्द एक 24 फिट चौड़ी और 18 फिट गहरी एक ख़ंदक खोदना और इस ख़ंदक की दीवारों को मट्टी से भर कर 18 फिट ऊंचा कर देना। और जब तक मैं हुक्म न भेजूं तब तक जंग न शुरू करना।
सिंध का साहिली शहर दीबल अब अरब लश्कर के घेरे में था। कुछ दिनों की जंग के बाद दीबल पूरी तरह फ़तह हो चुका था। दीबल का क़ैदख़ाना खोल कर सारे मुसलमानों को निकाल दिया गया,और चार हज़ार मुसलमानों को शहर में बसा दिया।अब दीबल के बाद मुहम्मद बिन क़ासिम ने हैदराबाद को भी फ़तह कर लिया, जिससे सब लोगों को लगने लगा था कि अरब ज़रूर सिंध पर छा
जाएंगे ।
होते होते मुहम्मद बिन क़ासिम ने सिंध के बड़े हिस्से पर कंट्रोल कर लिया। लेकिन अभी तक राजा दाहिर की उनसे खुली जंग नहीं हुई थी। राजा दाहिर अपनी फ़ौज के साथ सिंध के मग़रिबी इलाक़े रवाड़ के क़िले में ठहरा हुआ था।
हैदराबाद में जंग तक़रीबन ख़त्म हो चुकी थी और लोग मुहम्मद बिन क़ासिम की इताअत भी करने लगे थे।
फिर मुहम्मद बिन क़ासिम कश्ती का एक पुल तैयार करके रात के वक़्त सिंध के किनारे पहुंचें।
मुहम्मद बिन क़ासिम दरिया ए सिंध पार करने के बाद जिस जगह ठहरे उसे (जय वर) कहते थे यानी फ़तह की जगह,जब राजा दाहिर के एक वज़ीर को ये खबर हुई तो उसने कहा कि ये तो बुरा शगुन है अब अरबों को ज़रुर फ़तह मिलेगी।
मगर राजा दाहिर झुकने पर तैयार नहीं था उसने अपनी फ़ौज को तैयार होने का हुक्म दिया क्यूंकि अब उसे हर हाल में जंग ही करनी थी। राजा दाहिर ने अपने बेटे जय सिन्हा समेत कई सरदारों को वक़्फ़े वक़्फ़े से मुहम्मद बिन क़ासिम के लश्कर से लड़ने के लिए भेजा, लेकिन उन सबको शिकस्त हुई।
फिर राजा ख़ुद अपनी फ़ौज लेकर आगे बढ़ा और अरब लश्कर से तीन मील की दुरी पर अपना कैंप लगा लिया।।
फ़तह नुमा- ए – सिंध के मुताबिक़ दोनों फ़ौजों में रमज़ान के दसवे रोज़े को जुमेरात के दिन जंग हुई।
दोनो लश्करो में घमासान की जंग हुई राजा दाहिर हाथी पर बैठा था, एक अरबी जब राजा दाहिर के पास उसको मारने के लिए आया तो राजा दाहिर ने उसे तीर से मार दिया अब राजा दाहिर की फ़ौज के हौसले बढ़ने लगे और उसने एक ऐसा जबरदस्त हमला किया कि अरब मैदान ए जंग से भागने लगे।। मुहम्मद बिन क़ासिम ये देख कर घबरा गये उन्होंने जल्दी से पानी के चंद घूंट पिए और फिर ललकारते हुए कहा : मुझे देखो मैं तुम्हारा अमीर मुहम्मद बिन क़ासिम यहां मौजूद हूं, कहां भागते हो तलवार संभालो और लड़ो क्यूंकि काफ़िर शिकस्त खा चुके है फ़तह हमारी है।
मुहम्मद बिन क़ासिम की ये आवाज़ सुन कर अरबों में फिर जोश आ गया लड़ाई फिर तेज़ हो गई और इस बार अरब लश्कर का पलड़ा भारी पड़ गया।
लेकिन राजा दाहिर जैसे ही हाथी से उतरा वहीं एक अरब जंगजू ने जाकर उससे मुकाबला किया और राजा दाहिर के सिर पर तलवार मार दी। राजा की मौत के साथ ही अरबों ने ये तारीख़ की अहम जंग जीत ली राजा का सर काट कर हज्जाज बिन युसुफ के पास इराक़ भेज दिया।।
इसके बाद सिंध पूरी तरह फ़तह हो चुका था।
और सिंध के बाद मुहम्मद बिन क़ासिम ने मुल्तान को भी फ़तह कर लिया था सिंध की फ़तह के बाद मुहम्मद बिन क़ासिम चार साल सिंध में रहे उनका इरादा हिंदुस्तान में मशरिक़ की सिम्त बढ़ने का था इसी गर्ज़ से उन्होंने कन्नौज के राजा को पैग़ाम ए जंग भी भेज दिया था लेकिन 714 में हज्जाज बिन युसुफ का इंतकाल हो गया और उसके अगले साल जब वलीद का इंतिक़ाल हुआ तो अगले खलीफा सुलेमान ने हज्जाज से रंजिश की बुनियाद पर उसके दामाद, मुहम्मद बिन कासिम को वापस बुलवा लिया और यूँ अरब फौज हिंदुस्तान में मज़ीद मशरिक़ की तरफ न बढ़ सकी।
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