ईदुल अजहा का मुक़ददस त्यौहार सर पर है। इसकी अहम इबादतों में नमाज़,और क़ुर्बानी है। क़ुर्बानी हम क्यूं करते हैं इसके बारे आम तौर से सभी मुसलमानो को मालूम है कि ये इब्राहीम अलयहिस्सलाम का तरीक़ा था।और सहाबा के पूछने पर अल्लाह के रसूल सल्लललाहु अलयहि वसल्लम ने यही फ़रमाया था कि ” ये तुम्हारे बाप इब्राहीम अलयहिस्सलाम” की सुन्नत है।
ईदुल अज़हा मुसलमानो के दो बड़े त्यौहारों में से एक है, इस्लाम की एक खूबी ये है कि इसमें इन्सान की फितरत का लिहाज रखते हुए जहां खुशियों और तफ़रीह के लिए त्यौहार रखें गये वहीं इनके अन्दर बेहूदगी,दूसरे इंसानों की परेशानी व तकलीफ़,बेहयाई और फुजूल खर्ची से परहेज़ करते हुए अपने पैदा करने वाले से ताल्लुक, इंसानों के साथ हमदर्दी,भलाई और ज़्यादा से ज़्यादा लोगों के नफ़े और फ़ायदे का ख़्याल रखा गया है।
ईदुल फ़ितर के अन्दर सदक़ा फ़ितर हर हैसियत वाले मुसलमान पर लाज़िम है। एक मालदार मुसलमान अगर ख़ुशी मनाने के लिए निकलता है तो उसके लिए जरूरी है कि ख़ुद की ख़रीदारी के साथ दूसरे ग़रीब कमज़ोर भाईयों का भी ख़्याल रखते हुए सदक़ा निकाले। ताकि उनकी भी ईद हो जाये। और ईद का एक मतलब ख़ुशी भी है।
ईदुल अज़हा के अन्दर देखिए तो इससे होने वाले फ़ायदों का दायरा बहुत दूर तक चला जाता है। गोश्त जैसी सेहतमंद,बेहतरीन ग़िज़ा जो अक्सर लोगों को महंगाई की वजह से कम ही मिल पाती वो इन दिनों में हर किसी के पास पहुंच जाती है। क्योंकि क़ुर्बानी करने वाले मुसलमान को हुक्म है कि कुल गोश्त के तीन हिस्से करके एक अपने लिए,एक दोस्तों वो रिश्तेदारों के लिए और एक ग़रीब और मिस्कीनों के लिए निकाले।
फिर इसको तो हर कोई जानता है कि इसमें साल भर जानवर पालने वालों, उनके लिए चारे का इंतेजाम करने वालों,इनको मंडी में लाने वालों, और फिर ज़िब्ह करने वालों,चमड़ा हासिल करने वालों,और इसकी ढुलाई करने वालों और बेचने वालों के लिए किस क़दर नफ़े का सामान है। ये बात अलग है कि कुछ अरसे से एक खास ज़हनियत के तहत इस मौके पर चमड़े की तिजारत को तबाह करके एक बड़े तबके ख़ास तौर पर दीनी मदारिस के लिए राहें मुश्किल करने की कोशिशें जारी हैं।
लेकिन क़ुर्बानी का असल मक़सद तक़वा है। हर इबादत की तरह इसकी एक सूरत है और एक हक़ीक़त। इसकी सूरत तो जानवर को क़ुर्बान करना है और इसकी हक़ीक़त दुनिया की गन्दगी में डूबे,उसकी उधेड़बुन में लगे इंसान को उसकी पैदाइश के मक़सद के लिए तैयार करना है। क़ुरान करीम की सूरा हज आयत नम्बर 37 में इसी तरफ तरफ इशारा है कि अल्लाह के पास जानवर का न तो गोश्त पहुंचता है न ख़ून पहुंचता है, उसके पास तो तुम्हारे दिलों का तक़वा पहुंचता है।
तक़वे का क्या मतलब है?
तक़वे का मतलब वैसे तो ये है कि अल्लाह से डरकर इन्सान इस गुनाहों से भरी दुनिया में बच बचकर चले।लेकिन इसके एक ज़्यादा आम मअना भी हैं। और वो हैं “इस्लाम”। जी ! तक़वे का मतलब इस्लाम है। इसके लिए आप सूरा आल इमरान की आयत नम्बर 102 देखिए।
يٰۤـاَيُّهَا الَّذِيۡنَ اٰمَنُوۡا اتَّقُوا اللّٰهَ حَقَّ تُقٰتِهٖ وَلَا تَمُوۡتُنَّ اِلَّا وَاَنۡـتُمۡ مُّسۡلِمُوۡنَ ۞
“ऐ ईमान वालों अल्लाह से डरो(अल्लाह का तक़वा अपनाओ)जैसा उससे डरने(उसके तक़वे)का हक़ है,और इस्लाम के सिवा किसी और हालत पर जान मत देना”
इस आयत के पहले टुकड़े से मालूम होता है कि क़ुरान में अल्लाह के लिए मुकम्मल दर्जे का तक़वा अपनाने का हुक्म है,लेकिन इससे ये सवाल भी पैदा होता है कि एक मामूली इंसान ख़ुदा के मेअयार पर पूरा उतरते हुए वैसा तक़वा कैसे अपना सकता है जैसा कि ख़ुदा की शान के मुताबिक़ हो। तो आयत के अगले टुकड़े में ये क्लीयर कर दिया गया कि “आला दर्जे के तक़वे” से मुराद ये है कि तुम इस्लाम पर जमें रहो,और जब तुम्हारा इस दुनिया से जाने का आखिरी वक्त आये तो तुम उस वक्त इस्लाम की हालत में हो।
और ये मतलब इसलिए निकाला है क्योंकि क़ुर्बानी का मक़सद तक़वा बताया गया है और जैसा कि हम सब जानते है कि क़ुर्बानी की मौजूदा शक्ल इब्राहीम अलयहिस्सलाम की यादगार है। अब हम जो क़ुरान की “सूरा साफ़्फ़ात” में हज़रत इब्राहीम का वो वाक़या देखते हैं जो क़ुर्बानी की असल है,तो उसमें उनके और उनके साहबज़ादे (सुपुत्र) इस्माईल अलयहिस्सलाम के लिए अज़ीम( महान) क़ुर्बानी देते हुए अरबी का एक लफ़्ज़ (शब्द) “अस्लमा” فلما أسلما” इस्तेमाल हुआ है जो कि “इस्लाम” ही का एक क्रियारुप ( फ़अली शक्ल) है। तो इससे मालूम हुआ कि हज़रत इब्राहीम और इस्माईल (अलयहिमस्मलाम)ने क़ुर्बानी करते हुए जो सबसे अहम काम किया वो “इस्लाम” था।
ऐसे ही क़ुरान की सूरा बक़रह में हमें ये नज़र आता है कि जब ख़ुदा ने इब्राहीम(अलयहिस्सलाम) से कहा कि “इस्लाम को इख़्तियार कर”। इब्राहीम ने कहा ” मैने इस्लाम इख़्तियार किया”।( आयत 131)
इसी तरह सूरा हज से हमें पता चलता है कि मुहम्मद सल्लललाहु अलयहि वसल्लम के फ़ोलोवर्स इब्राहीम अलयहिस्सलाम की “मिल्लत” हैं।उन्हें इब्राहीम अलयहिस्सलाम के नक़्शे क़दम पर चलने का हुक्म दिया गया है।और इब्राहीम अलयहिस्सलाम ने ख़ुद मुहम्मद सल्लललाहु अलयहि वसल्लम को मानने वालों का नामकरण करते हुए उन्हें “मुसलमान या इस्लाम वाले” नाम दिया है। ( सूरा हज, आयत 78)
इसी तरह हदीस में आता है कि अल्लाह के रसूल सल्लललाहु अलयहि वसल्लम से पूछा गया कि तक़वा क्या तो आपने दिल की तरफ़ इशारा करते हुए फ़रमाया कि “तक़वा यहां है”। और इस्लाम भी वही मोतबर है जिसमें दिल से यक़ीन और ईमान हो।
इस पूरी डिटेल से चन्द बातें निकलकर सामने आती हैं।
1) क़ुर्बानी का मक़सद तक़वा है।
2) क़ुरान में आला दर्जे का तक़वा अपनाने का हुक्म है जिसकी व्याख्या इस्लाम से की गई है।
3)तो इस तरह तक़वा असल में इस्लाम ही का एक रूप है, या कहिये कि उसका आंशिक अर्थ है।
4) हज़रत इब्राहीम और हज़रत इस्माईल अलयहिमस्मलाम ने क़ुर्बानी करते हुए “इस्लाम” को अपनाया।
5) मुहम्मद सल्लललाहु अलयहि वसल्लम को मानने वालों को इब्राहीम अलयहिस्सलाम की मिल्लत कहा गया है।
6) इब्राहीम अलयहिस्सलाम ने मुहम्मद सल्लललाहु अलयहि वसल्लम के मानने वालों को ख़ुद अपने वाला ही नाम(यानी इस्लाम वाले) दिया है।
7) क़ुर्बानी की मौजूदा शक्ल इब्राहीम अलयहिस्सलाम की सुन्नत है। जिसके करने का हुक्म मुहम्मद सल्लललाहु अलयहि वसल्लम की उम्मत को भी दिया गया है।
इसका मतलब इब्राहीम अलयहिस्सलाम की सुन्नत तक़वा या इस्लाम है जिसको अपनाकर ही एक मुसलमान, सही मअना में इस्लाम वाला या मुसलमान रह सकता है।
अब सवाल यह है कि इस्लाम का मतलब क्या है?
इस्लाम का मतलब
इस्लाम का शाब्दिक अर्थ है झुकना,सरेंडर करना, फ़रमांबरदारी करना आज्ञाकारिता करना।
और शरीयत की टर्म में इस्लाम अपनी तमाम तर ख़्वाहिशों,आरज़ुओ,जज़्बात,भावनाओं,और ख़्यालात को ख़ुदा के हवाले कर देना। देखिए सूरा बक़रह आयत 112 और सूरा निसा आयत नम्बर 125।
यहां कोई ये सवाल कर सकता है कि क्या इस्लाम में सिर्फ सरेंडर ही करना है कुछ सोच-विचार, अक्ल व शऊर के इस्तेमाल की गुंजाइश नहीं है? क्या खुदा के सामने आंख बन्द करके सरेंडर कर दिया जाये?
जवाब सूरा निसा की इसी आयत नम्बर 125 में ही है। जिसमे कहा गया है कि सबसे बेहतर शख्स वो है जो अपने आपको अल्लाह के आगे झुका दे( यानी इस्लाम को अपना लें) और इब्राहीम अलयहिस्सलाम की पैरवी करे उन्हें फ़ोलो करे।
मतलब ये कि सरेंडर करने और फ़रमाबरदारी करने का वहीं तरीका कारगर होगा जो इब्राहीम अलयहिस्सलाम से मैच करता हो।अपनी मर्ज़ी और ख़्वाहिशो का सरेंडर कबूल नहीं किया जायेगा। जैसे इससे एकदम पहले वाली आयत में यही बात “किताब वालों” और मुसलमानो के लिए कहीं गयी है कि तुम्हारी आरज़ुओ और तमन्नाओं से कुछ नहीं होता।
अब देखना ये है कि इब्राहीम अलयहिस्सलाम की ज़िन्दगी में इस “इस्लाम” या “सरेंडर” या “फ़रमाबरदारी” या कहिये कि “तक़वे” का इज़हार( प्रकटीकरण या प्रदर्शन) प्रेक्टिकल में कैसा हुआ है।
एक उसूल
इन्सान का अमल, उसकी समझ और सोच-विचार दो चीज़ों से तय होती है:
1) अक़्ल या बुद्धि
2) जज़्बात और भावनायें
हर इन्सान के अन्दर ये दोनों चीजें पायी जाती हैं। फिर किसी इन्सान में अक्ल ज़्यादा होती है या कहिए कि वह अक्सर जगह अक्ल को आगे रखकर चीजों को खालिस “आब्जेक्टिव”( मारुज़ी या निष्पक्ष)तरीके पर देखने का आदी होता है। जबकि कोई दूसरा इंसान ज़्यादा जज़्बाती और भावुक होता है।वह “सब्जेक्टिव” (निजी दृष्टिकोण या ज़ाती रूझान) तरीके पर चीज़ों को ज़्यादा परखता और बरतता है। अक़्ल इसमें भी होती है या शायद दूसरे शख्स से ज़्यादा भी हो लेकिन इसका नजरिया जज़्बाती होता है। यही सूरते हाल बढ़कर पूरी पूरी क़ौम और मुल्क तक फैला जाती है। जिसका असर उनकी ज़बान,तहज़ीब व संस्कृति,रहन-सहन और हुकूमत व सियासत के तरीकों पर साफ नजर आता है। मसलन आम तौर पर जज़्बाती कौमें शख़्सी( व्यक्तिगत) बादशाही हुकूमतों को अपनाती है।और फ़िक्र व फ़लसफ़े की तरफ रुझान रखने वाली कौमे और मुल्क डेमोक्रेसी और कम्यूनिज्म की तरफ़ जाती हैं। फिर एक आदमी की तरह हर क़ौम की हालत भी बराबर नहीं रहती। किसी दौर में जज़्बात उन पर हावी रहते हैं,और किसी दौर में अक़्लपरस्ती का डंका बजता है। यूरोप इसकी बेहतरीन मिसाल है।
अब ये बहस लम्बी है कि इन्सान की ज़िन्दगी में कौन सा रवैया ज़्यादा बेहतर है, इस पर बहसें और डिबेट्स हुई हैं और होती रहती है। लेकिन ज़्यादातर जो चीज देखने में आयी है वो ये कि अक़्लपरस्त हमेशा जज़्बाती लोगों को कमतर समझते हैं और मज़े की बात यही है कि जज़्बाती लोग भी आम तौर पर इससे मुत्तफ़िक़(सहमत) नज़र आते हैं। लेकिन ज़्यादा मज़ेदार ये है कि अक़्लपरस्त भी अपनी हुकूमत और सरदारी के लिए जज़्बात व भावनाओं ही का सहारा लेकर काम चलाते हैं।
इस तरह हम कह सकते हैं कि दुनिया भर में कागजों पर अक़्लपरस्ती के एकाधिकार या इजारादारी के बावजूद प्रेक्टिकल जिन्दगी में जज़्बातियत और भावनात्मकता का ही बोलबाला है।
अब इस्लाम इस सिलसिले में क्या रहनुमाई करता है? और इसका कुर्बानी या इब्राहीम अलयहिस्सलाम से क्या संबंध है?
इस्लाम एक निहायत ही बेलेंस्ड और हदों की रियायत करने वाला प्रेक्टिकल दीन है।( सूरे रहमान आयत नम्बर 7) इसमें ज़रा भी उतार चढ़ाव और इन्सान की फ़ितरत के ख़िलाफ़ कोई चीज नहीं है।इस्लाम चूंकि इन्सान के ख़ालिक़ और उसके मालिक की तरफ से आया तरीका है इसलिए वो इन्सान के अन्दर ख़ुदा की रखी हुई हर खूबी व गुण का सही इस्तेमाल बताता है। किसी भी इंस्टिंक्ट या ख़्याल को दबाता नहीं है। जज़्बात व अक़्ल के सिलसिले में भी इसका यही नज़रिया है। दोनों को उनकी सही जगह पर इस्तेमाल करना है,किसी एक को भी ज़रूरत से ज़्यादा या हद से ज़्यादा कम नहीं करना है।
इसीलिए न तो इस्लाम में डेमोक्रेसी है(जिसका बड़ा शोर है) और न ही बादशाही और मोनार्की। न तो इस्लाम ख़ाली ख़ूली सूखे फ़लसफ़े और बेसिर पैर की अक़्ली मूशगाफ़ियो को बढ़ावा देता है न ही अंधी जज़्बातियत और यूथ इक़लाब के नाम पर अनारकी व बंदअम्नी फैलाने वाले निरे जोश की हौसला-अफजाई करता है।
इस्लाम किसी भी नज़रिये,अक़ीदे,और फ़लसफ़े को मानने से पहले उसकी सही जांच परख के लिए अक़्ल (अरबी का लफ्ज़ है जिसका शाब्दिक अर्थ रोकना है) का इस्तेमाल करने का हुक्म देता है। क़ुरान में बहुत सी आयतें इस बारे में आई हैं कि इन्सान को ज़मीन व आसमान,सितारों व सय्यारो से लेकर अपने अन्दर बाहर की दुनिया और ख़ुद अल्लाह की किताब में भी ग़ौर व फ़िक्र करने की दावत दी गयी है। अक़्ल के इस्तेमाल का मुतालबा किया गया है।
फिर जब उस नज़रिये,अक़ीदे,और फ़लसफ़े की परख हो गयी और ठोक बजाकर देख लेने पर वो सही निकला तो अब जज़्बात का नम्बर आता है। जज़्बात व भावनायें ही किसी नज़रिये और फ़िक्र व फलसफ़े को अमली शक्ल में लागू करने और उस मक़सद को हासिल करने में काम आते हैं जो अक़्ल की रौशनी में तय हो चुका है। अब पूरा जोश व वलवला,पूरी हिम्मत व एनर्जी उसी को पाने में लगा देनी है। हर क़दम पर सवाल,एतराज़,अक़्ली टहूके अब मक़सद से दूर करने का सबब बनेंगे।
अक़्ल व जज़्बात के इसी संगम को इस्लाम ने अपने अंदर समोकर उसे एक रूप दिया है जिसे हम शरीयत कह सकते हैं। इसलिए इस्लाम के उलमा कहते हैं कि बुनियादी अक़ाइद यानी ख़ुदा,रसूल,क़ुरान,आख़िरत को अक़्ल से साबित किया जायेगा। और लेकिन इसके बाद हर हर चीज़ को अक्ल से समझने या समझाने की जरूरत नहीं।
हैरत है कि सारी दुनिया इस इस्लामी उसूल को कहीं न कहीं अपनाये हुए है। मसलन किसी भी मुल्क की शहरियत क़बूल करने का मतलब है उस मुल्क के सारे कायदे कानूनों का पाबंद होना। चाहे आपकी समझ में उनका रीज़न आये या न आये। और चाहे आपको कितना ही गैर माक़ूल लगे।
इब्राहीम अलयहिस्सलाम अक़्ल व जज़्बात के संगम की बेहतरीन मिसाल हैं
हज़रत इब्राहीम अलयहिस्सलाम ने पहले पूरे ग़ौर व फ़िक्र से काम लेते हुए आसमान व ज़मीन की सल्तनत इसके निज़ाम और सिस्टम में भरपूर गौर किया। और जब दलील व अक़्ल से एक हक़ीक़ी ख़ुदा के अलावा तमाम कायनाती ख़ुदाओं का झूटा व बातिल होना साबित हो गया तो फिर उसी एक ख़ुदा की तरफ़ रुख़ करके अपनी तमाम तवज्जो और मेहनतों को मोड़कर जज़्बात व एहससासात को उसी एक मिशन और उसी की जुस्तजू में लगा दिया।
हमें सूरे “अनआम” की आयत 75 से 79 तक और सूरे “शुअरा” की आयत 70 से 77 तक,और सूरा “साफ़्फ़ात” आयत 85 से 98 तक में इब्राहीम अलयहिस्सलाम का इन माबूदो को ख़ालिस अक़्ली दलीलों के जरिए परखने और जांचने का मंज़र दिखाई देता है, यही सूरा “अंबिया” की आयत 52 से 70 तक नज़र आता है।
फिर इसके बाद जहां सूरा “शुअरा” में 77 से 82 तक माबूद हक़ीक़ी की पहचान हज़रत इब्राहीम अलयहिस्सलाम बताते हैं वहीं सूरा “अनआम” की 79 से लेकर 81 तक की आयतों में अक़्ली दलीलों से इस सच्चे माबूद तक पहुंचकर ये नारा बुलन्द करके उसकी राह में चल पड़ते हैं।
اِنِّىۡ وَجَّهۡتُ وَجۡهِىَ لِلَّذِىۡ فَطَرَ السَّمٰوٰتِ وَالۡاَرۡضَ حَنِيۡفًا وَّمَاۤ اَنَا مِنَ الۡمُشۡرِكِيۡنَۚ ۞
“मैंने अपना रुख हर तरफ़ से हटाकर उस माबूद की तरफ कर लिया है जिसने आसमानों और ज़मीन को पैदा किया,और मैं उसके साथ हरगिज़ (किसी को) शरीक करने वाला नहीं हूं”
(और दिलचस्प बात ये है कि यही दुआ क़ुर्बानी करते वक्त पढ़ी जाती है)
इब्राहीम अलयहिस्सलाम की इसके बाद की ज़िन्दगी देखिए,आपको राहें हक़ तय हो जाने और उस पर इत्मीनान होने का जज़्बा ठाठे मारता नज़र आयेगा। बेख़ौफ़ बुत शिकनी,आग में कूद पड़ना,बीवी और दूध पीते बच्चे को लगभग जंगल में छोड़ देना, फिर ख़्वाब की बुनियाद पर बेटे को ज़िब्ह करने के लिए तैयार हो जाना। सब के सब उस ईमान व यक़ीन के जज़्बे से सरशार आमाल हैं कि सूखा अक़्लपरसत इनको दीवानगी समझता है या खिलाफे अक़्ल कहकर इस पर एतराज़ करता है। लेकिन वह उस राज़ को न पा सकेगा कि ये सब ऐन अक़्ल ही का तकाज़ा है। अक़्ल की मंज़िल पार करके ही इश्क़ व जज़्बात की दुनिया में ये सैर की जा रही है।
हैरत है कि ऐतराज़ करने वालों में एक छोटे बच्चे जितना भी शऊर नहीं है।बच्चा जब चलना सीखता है तो मां बाप सामने खड़े उसको देखते रहते हैं। वो उनकी तरफ लड़खड़ाकर दौड़ता है,शुरू में उसकी तरबियत के लिए,उसको सीखने देने के लिए सहारा नहीं देते। लेकिन जब बिल्कुल गिरने लगता है तो संभाल लेते हैं। बच्चे को इसका विजदान व एहसास होता है कि मां बाप हैं, उनके भरोसे कदम बढ़ाओ वो संभाल ही लेंगे।
वरना खालिस अक्ल तो कहती है कि जब चलना नहीं आता,गिरते हों तो क्यों चलते हो?
यही मामला इब्राहीम अलयहिस्सलाम ( दूसरे अंबिया का भी) का था। उन्हें अपने रब के वुजूद,उसकी रहमत पर इससे ज़्यादा यक़ीन था। इसलिए रास्ते की तमाम लडगडाहट उन्हें मामूली नजर आती कि रब है सब संभाल लेगा। और फिर उसी का तो हुक्म मान रहा हूं। वो खुद निमट लेगा।
बेख़तर कूद पड़ा आतिशे नमरूद में इश्क़
अक़्ल है महवा ए तमाशा ए लबे बाम अबभी
इसलिए इब्राहीम अलयहिस्सलाम को बेटे की क़ु्रबानी में ज़रा भी तरददुद न हुआ।कामिल यक़ीन जो था कि जो कुछ वहां से हुक्म है उससे ज़्यादा हिक्मत,अक़्लमंदी, मसलेहत,और लाजिक कहीं हो ही नहीं सकता। आख़िर ये बेटा दिया भी तो उसी ने है,अगर वो अपनी चीज़ कहकर ले रहा है तो क्या दिक्कत है। वो ताकतवर है जब चाहे ज़बरदस्ती ले ले,कोई चूं भी नहीं कर सकता। न किसी में ताक़त जो उसे रोक सके।
मुझे हज़रत इस्माईल अलयहिस्सलाम की क़ुरबानी करने पर,हज़रत इब्राहीम अलयहिस्सलाम के तैयार हो जाने को लेकर ऐतराज़ करने वाले बड़े ही मुनाफ़िक़ क़िस्म के लगते हैं।
ज़रा उनसे पूछा जाये कि आपको इस बेटे की क़ु्रबानी का इल्म कैसे हुआ?ज़ाहिर है क़ुरान या तौरेत या इंजील से। मतलब ख़ुदा ही की किताबों में से किसी एक से।अब इन्हीं किताबों में ये भी है कि इब्राहीम अलयहिस्सलाम ने बुढ़ापे में( 90 साल के क़रीब) औलाद की दुआ मांगी थी जबकि उस वक्त औलाद होना इन अक़्लपरसतो के नजदीक भी नामुमकिन है। फिर इन्हीं किताबों में है कि बेटा हुआ,और क़ुरान करीम में तो सूरा साफ़्फ़ात में उसी क़ुर्बानी वाले वाकये से बिल्कुल मिला हुआ हज़रत इब्राहीम अलयहिस्सलाम की दुआ और उसकी क़बूलियत का ज़िक्र है।
कुछ लोग जो ख़ुद को मुसलमान कहने के बावजूद हज़रत इब्राहीम अलयहिस्सलाम को अच्छा शौहर और अच्छा बाप नहीं मानते (नउज़बिल्लिह) मसलन मशहूर फ़ेमिनिस्ट “अमीना वदूद” के नज़दीक हज़रत हाजरा को मक्का में अकेले छोड़कर जाना गलत था (मआज़ल्लाह)
कमाल है कि हज़रत इब्राहीम अलयहिस्सलाम एक तरफ़ अल्लाह का ख़लील माना जाये और दूसरी तरफ अल्लाह का हुक्म न मानने की उम्मीद रखी जाये। और ये उम्मीद रखी जाये कि उन्हें अल्लाह पर भरोसा नहीं करना चाहिए था?
क्या पागलपन है। हज़रत हाजरा को तो ऐतराज़ नहीं था। वो तो ख़लीलुल्लाह के मनसब को समझती थीं। उन्होंने बस इतना ही पूछा :
” क्या अल्लाह ने आपको ऐसा करने का हुक्म दिया है”?
जवाब मिला : ” हां”
अर्ज़ किया : ” तब तो वो हमें बर्बाद नहीं होने देगा”।
बताईये इसमें क्या ग़लत है? क्या बुढापे में बच्चा देने वाला जंगल में खाने रहने का इंतेजाम नही कर सकता?
फिर हज़रत हाजरा तो बड़ी समझदारी औरत थीं। लेकिन हज़रत इस्माईल अलयहिमस्मलाम तो बच्चे थे। वालिद के सवाल पर कि अल्लाह ने तुझे क़ुर्बान करने का हुक्म दिया है इस पर ये बच्चा क्या कहता है?
“अब्बाजान जो हुक्म है कर गुज़रिये मुझे आप अल्लाह ने चाहा तो सब्र करने वालों में से पायेंगे”।
अल्फ़ाज़ और उनको बरतने का सलीका देखिए। ये कहा कि अल्लाह ने चाहा तो, मतलब ये सब हिम्मत अल्लाह ही की तरफ़ से है।और ये कहा कि अकेला मैं ही सब्र करने वाला नहीं हूं बल्कि आप, मेरी वालिदा और बहुत से खुदा के बंदे भी सब्र करते हैं।
किसने इस्माईल( अलयहिस्सलाम) और उनकी वालिदा हाजरा( अलयहसस्लाम) में ये यक़ीन,ये जज़्बा पैवस्त कर दिया था?अगर ये हज़रत इब्राहीम अलयहिस्सलाम के अक़्ल से गुजरकर यकीन में बदल चुके जज़्बे ईमानी का असर न था तो किसका था?
हर शख्स जिसको अपने मिशन और मंजिल पर इब्राहीम अलयहिस्सलाम की तरह यक़ीन हो जाता है तो वो उसकी दावत देने,उसका प्रचार करने,उसकी तरफ़ लोगों को पुकारने में दीवानगी की हद तक कोशिशें करता है। यहां तक कि उनके अन्दर अपना ये जज़्बा उतारकर उन्हें भी अपना हमनवा और हमराही बना लेता है।फिर उसके लिए ख़लीलुल्लाह की तरह बाप, ख़ानदान व क़ौम,मुल्क और बीवी बच्चों को छोडना और बुढापे की लाठी को क़ुर्बान करना आसान हो जाता है। वो तो सिर्फ़ अपने पालने वाले की तरफ़ रुख़ करके उसी से रहनुमाई की उम्मीद लगाये बैठा रहता है।
وَقَالَ اِنِّىۡ ذَاهِبٌ اِلٰى رَبِّىۡ سَيَهۡدِيۡنِ
“इब्राहीम ने कहा कि मैं तो अपने रब की तरफ़ जाता हूं वही मेरी रहनुमाई करेगा”।
क़ुरबानी इसी जज़्बे की यादगार है,इसी को ज़िन्दा करने और अपनी ज़िन्दगियों में उतारने के लिए है। जब इब्राहीम अलयहिस्सलाम अपने इकलौते लाडले बेटे पर ख़ुदा के लिए छुरी चलाने से इसलिए नहीं रूके,कि उसी की अमानत है उसी ने मांग ली है,तो हम जानवर की क़ुर्बानी करते हुए क्यों झिझक महसूस करें। इब्राहीम अलयहिस्सलाम की सुन्नत का तकाज़ा है कि हम भी ये यक़ीन रखते हुए ख़ुदा के दरबार में अपनी क़ुर्बानियों का नज़राना पेश करें कि ये सब उसी की थी हुई चीज़ें हैं। उसी को पेश करने में क्या दिक्कत है जबकि खाल,गोश्त सब हमारे इस्तेमाल में ही आयेगा। खुदा चाहे तो इन जानवरों,और दूसरे माल समेत हमें भी चुटकी में हराकर कर दे,फिर हम कौनसी अक़्ल इस्तेमाल करके कुर्बानी पर ऐतराज़ या शक करेंगे।
मक़सद ये है कि अपनी महबूब और प्यारी चीज़ों की कुर्बानी खुदा के सामने पेश करके अपने इस्लाम को ताज़ा करो,और अलामती तौर पर ये क़ुरबानी तुम्हें याद दिलाती है कि इन जानवरों की तरह तुम भी ख़ुदा ही के हो। उसी के पास लौटकर जाना है। तो क्यों न आज ही सरेंडर करके उसके वफ़ादार,फ़रमाबरदार,आज्ञाकारी बन्दे बन जाओ कि इसी का नाम तो इस्लाम है। और मुसलमान का मतलब है इस्लाम वाला, जिसके अन्दर इस जज़्बे में कमी हो उसे अपने मुसलमान होने पर गौर कर लेना चाहिए। क्योंकि मुसलमान कोई नस्ली,या इलाकाई नाम नहीं है। ये तो इस्लाम को अपनाने और मानने वालों की विशेषता है। जो न माने उसके अन्दर से ये सिफ़र खत्म हो जाती है।
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