“अल्लाह के रसूल सल्लललाहु अलयहि वसल्लम ने फ़रमाया कि तुम्हारा रब फ़रमाता है कि हर नेकी का बदला दस गुना से लेकर सात सौ गुना तक दिया जाता है,(रोज़े के अलावा, क्योंकि) रोज़ा मेरे लिए है और मैं ही उसका बदला दूंगा,रोज़ा जहन्नम के लिए ढाल है,और रोज़ेदार के मुंह की बू अल्लाह के नज़दीक मुश्क की ख़ुशबू से ज़्यादा पाकीज़ा है,और अगर कोई जाहिल तुमसे जहालत के साथ पेश आये,( यानी गाली गलौज और झगड़ा करे)जबकि तुम रोज़े से हो तो उससे कह दो कि मैं रोज़े से हूं (तुझसे झगड नहीं सकता).”
तिरमिज़ी : 764
नोट : यहां सवाल ये पैदा होता है कि जितने भी नेक काम है वो सब अल्लाह ही के लिए हैं तो फिर रोज़े में क्या खास बात है कि सिर्फ़ उसी को अल्लाह ने कहा है कि मेरे लिए है और मैं ही इसका बदला दूंगा।
तो बात असल में ये है कि रोज़ा एक ऐसी इबादत है जिसमें दिखावा,या रियाकारी नहीं हो सकती, इसको हर शख्स इख़्लास के लिए और खालिस अल्लाह के लिए ही रखता है, क्योंकि रोज़े में इंसान “कुछ” नहीं करता,ना नमाज़ की तरह हाथ बांधता है,न रूकु सजदा करता है कि पता चल जाये हां ये आदमी रोज़ेदार है,न ही हज की तरह एहराम बांधता है,रोज़ा असल में ज़ाहिरी बदन से कुछ न करने का नाम ही है,इसमें तक़वा भी हर इन्सान के अन्दर रहता ही है, क्योंकि जब इंसान तन्हा हो,अकेले कमरे में हो जहां कोई देखने वाला नहीं,अगर चुपके से पानी पी लें या कुछ खा ले तो कोई दुनिया की ताकत नहीं बता सकती कि इसने कुछ खाया पिया है कि नहीं,वज़ू करते वक्त तो सबके सामने भी खुलेआम कुल्ली के दौरान कुछ पानी आराम से हलक़ के अन्दर उतार सकता है,लेकिन होता ये है कि रोजेदार के हलक़ में हल्का सा क़तरा ग़लती से चला जाये तो वो बेचैन होकर मसला मालूम करता है,और फिर उसकी क़ज़ा भी करता है।
कौन है जो ये सब करने पर मजबूर कर देता है?
किसकी ख़ातिर ये मशक़्क़ते बर्दाश्त की जाती है?
किसकी याद इंसान को तन्हाई में उस खाने पीने से बाज़ रखती है जो कल तक उसके लिए हलाल था,रमज़ान आते ही रुक गया?
आखिर इंसान के ख़ालिक़,उसके माबूद,उसके महबूब, उसके परवरदिगार,उसके पालनहार,उसके करीम,सख़ी दाता,उसके रज़्ज़ाक़ उसके अल्लाह के सिवा किसकी हस्ती है कि जिसकी मुहब्बत,इताअत,फ़रमाबरदारी,रज़ा के लिए ये सब कुछ इंसान करता है,वो जानता है कि तन्हाई में अगर कोई नहीं देख रहा तो वो तो देख रहा है जिसके लिए रोज़ा रखा है,हलक़ से उतरने वाले छोटे से क़तरे तक का जिसे इल्म है।
इख़्लास,इशक़ मुहब्बत,ताल्लुक,फ़रमाबरदारी का इससे बड़ा मज़हर,इससे बडी मिसाल,इससे ज़्यादा शानदार नज़ारा दुनिया ने कभी नहीं देखा है,उस अनदेखे महबूब व माबूद ख़ुदा की रज़ा,उसकी चाहत को हासिल करने के लिए लाखो करोड़ो इंसान भूक प्यास और अपनी ख़्वाहिशात को लगाम लगाते हैं,इंतिहाई ख़्वाहिश पर भी सूखी ज़बान पर पानी का क़तरा तक रखना गवारा नहीं।
क्या यहां कोई पुलिस है जो ये कराती है?
कोई कानून हैं जिसका डर ये सब करने पर मजबूर करता है?
कौन सी अदालत है जिसकी सज़ा के खौफ़ से लरज़कर ये मेहनतें करनी पड़ती हैं?
ये सिर्फ और सिर्फ इंसान की फितरत है जिसके अन्दर अपने खालिक व मालिक की तलाश व प्यास भडक रही है,पूरे साल इस पर उमूमन ख़्वाहिशात के परदे पड़े रहे,आज जब रमज़ान में सरकश शैतान कैद कर दिये गये तो इंसान की रूह पर से उनका शिकंजा भी ढीला हो गया,जन्नत के दरवाजे खुल गये,तो उसकी रूहानी हवाएं दिलों दिमाग में पैवस्त होकर रूह व नफ़्स की ग़लाज़तो को उड़ाकर ले जाने लगीं।
दोज़ख़ के दरवाज़े बंद कर दिये गये,तो उसकी तपिश और रूहानी अज़ाब जो खुदा के ग़ज़ब व नाराज़गी का परतो और मज़हर है वो कम हो गया,अब सिर्फ रहमतों ही रहमतों का साया चारो तरफ फैल गया,जिसने इंसान के अन्दर एक महीने तक की मुद्दत के लिए रोज़े रखकर रब की उबलती हुई रहमतों,और उसकी नज़दीकी के लिए उसको तैयार कर दिया,लिहाजा हर शख्स देख सकता है कि रमज़ान में नेकी करना आसान और गुनाह दुशवार हो जाता है,ये सब अल्लाह के करम की वजह से है कि उसने रोज़ा फ़र्ज़ करने के साथ इंसान के लिए रुहानी अस्बाब पैदा करके उसके लिए इस अमल को करना भी आसान कर दिया है।
दूसरी वजह रोज़े की फ़ज़ीलत की ये भी है,कि ये एक ऐसा अमल है जिसमें इंसान अल्लाह की नक़ल करता है, जिस तरह अल्लाह को न खाने की जरूरत है न पीने की न बीवी की,इसी तरह इंसान भी एक महीने के लिए उसको कापी करता है,न खाता है न पीता है न अपनी दूसरी ख़्वाहिशात पूरी करता है,इसलिए अल्लाह को रोज़ा खास तौर से पसन्द है और इसका बदला अपने ज़िम्मे रखा है,बाकी आमाल में बन्दा जो करता है वो अल्लाह की शान नहीं है, मसलन नमाज़ में अल्लाह के सामने झुकता है तो अल्लाह तो किसी के आगे नहीं झुक सकता,इसी तरह दूसरी इबादतों में गौर कर लें।
फिर हदीस में कहा गया कि इसका बदला अल्लाह ही देता है,मतलब ये है कि रोज़े का बदला क्या होगा इसका कोई लगा बंधा उसूल नहीं है,जैसे दूसरे हर अमल में एक का बदला 10 से सात सौ तक हर आदमी को उसके इखलास के एतबार से मिल जाता है,रोज़े के लिए कोई ख़ास सवाब तय नहीं है,अल्लाह ने फ़रमाया मैं खुद दूंगा यानी फरिशतो तक को इसका पता नहीं कि कितना बड़ा इनाम दिया जा सकता है,अब हर कोई दुनिया में भी अपनी हैसियत के हिसाब से देता है,तो अल्लाह की हैसियत का तो अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता,उसका तो बहुत थोड़ा भी दुनिया जहान से बढ़ जाये।
कितने बदनसीब और नामुराद हैं वो लोग जो रमज़ान का महीना पा लें,फिर भी इतनी बरकतों,इतनी नेकियों और खुदा से ताल्लुक के इतने शानदार मौके को सिर्फ ज़रा सी ज़बान की लज़्ज़तो के लिए या थोडी सी मशक्कत बर्दाश्त करने को मुसीबत समझकर अपने आपको महरूम कर देते हैं,अल्लाह की रहमत इस महीने में इतनी ज़्यादा होती है कि वो बन्दों के लिए मग़फ़िरत के,उन पर इनाम व करम की बारिश करने के बहाने ढूंढती है,इसके बावजूद अगर कोई इसमें अपनी मगफिरत न करा पाये तो उससे ज़्यादा बदनसीब कौन होगा?
ज़ाहिर है कि इतनी रहमतों के बावजूद जो खुदा से रुख़ मोड़ ले,उस पर किस क़दर नाराज़गी और खुदा ग़ज़ब होगा? कि एक कमज़ोर हकीर,मोहताज बन्दा ख़ुदा के सामने गोया तनकर खड़ा है,उसके अहकाम की कोई कद्र उसकी नजर में नहीं है,न ही उसकी रहमतों की उसको लगता है कि ज़रुरत है,आप खुद सोचिए कि आपके सामने वो शख्स जो आपका मोहताज हो,आप पर ही डिपेंड करता हो आप उसके ही फायदे के लिए उसे कुछ करने को कहें और साथ में शानदार इनाम का वादा भी करें लेकिन वो अकड़ दिखाये,और आपको कोई भाव न दे तो क्या कुछ आपके जज़्बात होंगे,जबकि आपकी मिल्कियत,आपकी परवरिश अल्लाह के मुक़ाबले कुछ नहीं है,न आपका अहसान अल्लाह के अहसान के सामने कुछ है,न ही वो आपका इतना मोहताज है जितने आप और हम अल्लाह के मोहताज हैं।
और ये मैं नहीं कह रहा हूं बल्कि एक हदीस में अल्लाह के रसूल सल्लललाहु अलयहि वसल्लम ने बिल्कुल यही बात फ़रमाई है,उस हदीस पर किसी और दिन बात होगी इंशाअल्लाह।
अल्लाह हम सबको अपने ग़ज़ब,कहर, नाराज़गी, और गुस्से से बचाये,और अपनी रहमत में जगह अता फरमाए,और रमज़ान सुन्नत के मुताबिक गुजारने की तौफ़ीक अता फरमाए।
आमीन
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