कुछ लोग होते हैं जो मर कर भी नहीं मरते हैं उनका काम, उनकी सोच हमेशा के लिए दिलों में ज़िंदा रह जाती है , वह लोगों के आदर्श , रोल- माडल बन जाते हैं, जिन्हें देख – सुनकर आने वाली पीढ़ियां कुछ कर गुजरने की प्ररेणा पातीं है, इन्हीं शख़्सियतो में से एक शख़्सियत थी।
शाहिद आज़मी जो आज़मगढ़ के इब्राहीमपुर गांव का रहने वाले थे। जो अपने परिवार के साथ मुम्बई रहते थे बचपन में ही पिता अनीस अहमद का इन्तिकाल हो गया। शाहिद आज़मी ने पंद्रह साल की आयु में दसवीं की परीक्षा दी। अभी नतीजे भी नहीं आए थे कि 15 साल के शाहिद आजमी को मुंबई दंगों का आरोपी बताते हुए पुलिस ने टाटा एक्ट के तहत गिरफ्तार कर जेल भेज दिया, जेल में ही अपनी पढ़ाई जारी रखी और कानून की डिग्री हासिल की। उन्हें पांच साल की सजा भी हुई बाद में सुप्रीम कोर्ट से बरी हो गए। जेल से रिहा होने के बाद LL.M भी किया उनकेे घर वाले चाहते थे, कि वह बड़े वकील बनकर ख़ूब पैसा कमाये मगर अल्ल्लाह ने शाहिद को बेक़सूर कैदियों की लड़ाई लड़ने, इंसाफ़ और हक़ की आवाज़ बुलंद करने के लिए बनाया था।
शाहिद आज़मी ने बेक़सूर नौजवानों को रिहा कराना अपनी जिंदगी का मक़सद बना लिया था वह मुम्बई लोकल ट्रेन धमाका, मालेगांव क़ब्रस्तान विस्फोट और औरंगाबाद असलेहा केस के आरोपियों के वकील थे। यही वह दौर था जब देश में साम्प्रदायिक-ताक़तो द्वारा यह मुहिम चलाई जा रही थी कि कोई भी वकील
आतंकवादियों का मुकदमा नहीं देखेगा। जब भी किसी को आतंक के आरोप में शक के आधार पर गिरफ्तार किया जाता था मीडिया और पुलिस की गढ़ी हुई कहानियों पर आवाम भी पहली नजर में बिना किसी तहक़ीक़ किये यकीन कर लेती थी, उसके बारे में कोई बात करना नहीं चाहता था, परिवार और रिश्तेदार भी उससे अपना सारा नाता खत्म करलेते थे ऐसे डरावने माहौल में मुम्बई में शाहिद आजमी और लखनऊ में मोहम्मद शुएब तमाम धमकियों और हमलों के बाद भी बेगुनाह कैदियों की लड़ाई लड़ रहे होते थे।
शाहिद आज़मी ने अपने साथ साल की प्रैक्टिस में 17 लोगो को बरी कराकर हिंदुस्तानी मुसलमानों के दामन पर लगे हुए गद्दारी के दाग़ को धोकर सांप्रदायिक ताक़तों को करारा जवाब दिया था, वह तमाम मजलूमो और बेकसूर कैदियों के उम्मीद के प्रतीक थे, शाहिद मुंबई हमलों के अभियुक्त फहीम अंसारी की पैरवी कर रहे थे जिसके लिए उन्हें धमकियां भी मिल रही थी… आख़िरकार
11,फरवरी 2010 को मुम्बई मे इंसानियत और इंसाफ़ के दुश्मनों ने शाहिद आजमी को शहीद कर दिया।
शायद वह इस लड़ाई में आने वाले ख़तरों से वाक़िफ़ थे। इसीलिए उनकी मां जब उनसे शादी करने की बात करतीं तो वह मुस्करा कर टाल देते थे।
शाहिद आजमी एक शख़्सियत नही बल्कि एक तहरीक का नाम है, उनकी जिंदगी, किरदार और मक़सद से मुतास्सिर होकर हमने कानून की पढ़ाई शुरू की थी और आज फ़ख़्र से कहते हैं कि हम भी शाहिद आज़मी बनना चाहते है।
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