मेरा आज का अनुभव वसी मियां ख़ान शिक्षा

क्या सब बच्चों में बराबरी ज़रुरी है?उम्मे ख़ालिद, अनुवाद: वसी मियां ख़ान

जब पहली पहल मेरे एक से ज़्यादा बच्चे हो गये तो मेरा पूरा ध्यान इस बात पर था कि सब बच्चों के साथ बराबरी का मामला किया जाये।

ये बात मेरे दिमाग में घर कर गई थी कि बराबरी बहुत ज़रुरी चीज है,और मुझे इस बात को सुनिश्चित करना( यकीनी बनाना) है कि ज़र्रा बराबर भी इस सिलसिले में कोताही न हो पाये कि हर बच्चे के साथ बिल्कुल उसके दूसरे बहन भाईयों की तरह ही व्यवहार ( सुलूक) किया जाये। क्योंकि मैंने खुद बहुत से परिवारों में ये देखा कि मां बाप बहन भाईयों के मामले में नाइंसाफी करते हैं। इन सब बातों की वजह से मैंने अपने आप से ये वादा कर लिया था कि मैं अपने बच्चों के साथ हरगिज़ ऐसा नहीं होने दूंगी। शुरू से ही बराबरी मेरा मकसद था।

लेकिन उस वक्त से अब तक मेरे नजरिए में बदलाव आ चुका है। यकीनन बराबरी और इंसाफ अभी भी महत्वपूर्ण (अहम) हैं। लेकिन इन गुज़रे सालों में मेरे बच्चों ने मुझे सिखा दिया है कि बराबरी और इंसाफ से भी ज्यादा अहम एक और चीज है और वो है निष्पक्षता या पात्रता (जिसे अंग्रेजी में equity और उर्दू में इस्तिहक़ाक कह सकते हैं)

बराबरी और समानता तो ये है कि हर बच्चे को एकदम वहीं चीज दी जाये जो दूसरे को दी जा रही हैं।

जबकि पात्रता या इस्तिहक़ाक़ ये है कि हर बच्चे के साथ उसकी उम्र,उसके व्यक्तित्व (शख्सियत) और उसकी आवश्यकताओं (जरुरतों) के अनुसार व्यवहार किया जाये।
समानता या बराबरी का मतलब है एकरुपता या यकसानियत। जबकि पात्रता और इसतिहक़ाक़ का मतलब है आवश्याकतानुसार अनुपातिक (मुतानासिब) इंसाफ और न्याय।

बराबरी और निष्पक्षता दोनों ही का मकसद इंसाफ है, बस इतना फर्क है कि एक मे सब ही मामलों को एक तरह से हैन्डिल किया जाता है जबकि दूसरे का तकाज़ा है कि एक जैसे मामलो को एक तरह और अलग मामलों को अलग तरीके पर हैन्डिल किया जाये।

मुझे इस मुकम्मल बराबरी के ख्याल को उस वक्त छोड़ना पड़ा जब मेरे दो बच्चे हो गये। ये तो सच्चाई है कि बिल्कुल शुरू के स्टेज पर एक बच्चे के अलग व्यवहार, अलग शख्सियत को बता पाना मुश्किल है। लेकिन जैसे जैसे मेरा दूसरा बेटा बड़ा होने लगा मुझे दोनों बच्चों की शख्सियत,उनके बर्ताव एवं चाल चलन में साफ फर्क महसूस होने लगा।

जब वो दोनों खेलते तो मेरा बड़ा बेटा छोटे के मुकाबले ज्यादा हावी और आक्रामक रहता। और कारण सिर्फ ये नहीं था कि वो उम्र में बड़ा होने की वजह से जिस्मानी ताकत में ज्यादा था। बल्कि उम्र का लिहाज करने के बावजूद भी वो छोटे से ज़्यादा मज़बूत इच्छाशक्ति ( कुव्वते इरादी) का मालिक था।

मैंने बहुत से खानदानों के बारे में पढ़ा भी है और खुद देखा भी है कि उनमें एक खास तरह का रवैया चलता है,कि दो बच्चों में से एक हमेशा आक्रामक(तेज़ और जारह)होता है और दूसरे बच्चे की इमेज “बेचारा” और “अच्छा बच्चा” की होती है।

जिन बच्चों को मां बाप हमेशा नाम रखते रहते हैं, इल्ज़ाम देते रहते है वो बच्चे आम तौर पर इस तरह के रवैय्ये और इल्जामों को अपनी शख्सियत व किरदार के अन्दर उतारकर उसे गैर महसूस तरीके पर अपना लेते हैं।
वो हमेशा के लिए “गन्दा बच्चा”, “बागी”, “खुदसर”, “जिद्दी”, “हठधर्म” बन जाते हैं। जबकि दूसरे टाइप के बच्चों पर “अच्छा बच्चा”, “नेक”, “कमज़ोर” “लाचार” के लेबल चिपक जाते हैं।

मैं कभी नहीं चाहती थी कि अपने बच्चों में से किसी पर भी इस तरह के लेबल चिपकाने की जिम्मेदार बन जाऊं।

इसलिए जब भी बड़ा बेटा छोटे के हाथ से खिलौने छीनकर ले जाता है और छोटा बस हल्का सा प्रोटेस्ट और खामोश शिकायत करके रह जाता है तो मैं छोटे वाले से कहती हूं कि अपनी हिफाजत करो। और मुकाबला करो।

मुझे बड़े बेटे को अपनी हिफाजत करने या मुकाबला करने के लिए कहने की नौबत कभी नहीं आयी क्योंकि ये चीजें उसके अन्दर खुद ही पायी जाती हैं।वो स्वाभाविक रुप से (फितरतन)अपनी हिफाजत करना जानता है, अपनी सरहदों और सीमाओं का उसे अच्छी तरह पता है। सो बताने या याद दिलाने की कभी जरूरत नहीं पड़ती।

लेकिन दूसरे बेटे की शख्सियत बहुत अलग थी,वो हमेशा बड़े भाई से सहमत होने और उसकी हां में हां मिलाने के लिए तैयार रहता था और हर मामले में उसी को आगे बढ़ने देता।और इससे ये होता कि वो खुद बड़े भाई से अपना हक तक लेने की हिम्मत नहीं रखता।

इस मामले की एक अलग मिसाल ये है कि जब भी बड़े बेटे के पास कोई ऐसी चीज होती जो छोटे के पास नहीं है तो मैं इस बात पर पूरा जोर देती कि हर चीज हर बच्चे को उसी वक्त बराबर बराबर मिलनी चाहिए। लेकिन जल्दी ही मैंने महसूस किया कि कभी कभी इस तरह की बराबरी नामुमकिन हो जाती है ‌

एक बार ऐसा हुआ कि बड़े बेटे की उम्र के बच्चों के लिए एक टेनिस का प्रोगाम था, ज़ाहिर है कि छोटे वाला उसमें शरीक नहीं हो सकता था तो अब क्या किया जाए? ऐसे मामलों में मैं बच्चों को ये समझाती हूं कि देखो! एक खास उम्र के साथ अगर कुछ खास इख़्तियार,सहूलतें और छूट मिलती है तो उनके साथ साथ कुछ जिम्मेदारियां भी आ जाती है। मिसाल के तौर पर जब तुम पांच साल के हो जाओगे तो टेनिस प्रोग्राम( मुकाबले) में हिस्सा लेने की छूट मिल जायेगी लेकिन इसके साथ ज़्यादा काम करने की जिम्मेदारी भी तुम पर आ जायेगी,जबकि तीन चार साल की उम्र में तुम हालांकि टेनिस प्रोग्राम में हिस्सा नहीं ले पाओगे तो तुम्हें ज्यादा और भारी काम भी तो नहीं करने पड़ेंगे।

तो पांच साल का होने पर हर बच्चे को एक जैसी ही छूट सहूलते मिलेगी और एक ही ही जिम्मेदारी भी उठानी पड़ेगी, यहां पर किसी की तरफदारी का मामला नहीं है।

गुजरते सालो में जब और बच्चे भी हो गये तो मामला ज़्यादा पेचीदा हो गया। अब हर बच्चे की शख्सियत का लिहाज करके उसको हैन्डिल करना था।

मुझे एक एक बच्चे को उसके मिज़ाज,शख्सियत,कमज़ोरियों,जरुरतों और खास मसलो को ध्यान में रखते हुए उसकी तरबियत करने का तरीका ढूंढना पड़ा। चूंकि मेरे सारे बच्चे एक दूसरे से अलग है इसलिए ज़ाहिर है कि उनकी तरबियत का तरीका भी एक जैसा नहीं हो सकता था। लिहाजा ये बिल्कुल फितरी सी बात है कि मेरा ताल्लुक,रवैया, और मामलात भी हर बच्चे के साथ एक जैसे नहीं हैं। हर बच्चे के साथ एक गहरा ताल्लुक जोड़ने और उसके अन्दर तक झांकने के लिए ये जरुरी था कि मेरा रिश्ता हर एक से उसकी शख्सियत,और उसके मिज़ाज की जरुरतों को ध्यान मे रखकर बने।

अगर में बराबरी की ख्वाहिश के जुनून में सबको एक ही लाठी से हांकती तो ये उनके साथ बहुत बड़ी नाइंसाफी और ज़ुल्म होता।

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